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Wednesday, 23 May 2012

मुमताज की तलाश



मुमताज़ की तलाश...

बात बहुत पुरानी है, पर आज भी सोचने पर हसी आ ही जाती है...


कॉलेज का वार्षिकोत्सव होने को था।श्री अवस्थी ने एक एकांकी लिखा और उसके मंचन हेतु उपयुक्त पत्रों की खोज प्रारंभ की।सभी महत्त्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका करना चाहते थे।लड़कियों में भी चर्चा ज़ोरों पर थी।अलग अलग व्यक्तित्व वाली लड़कियों में मुमताज़ की भूमिका पाने की होड़ लगी हुई थी। सकारण अपना अपना पक्ष रख कर उस किरदार में अपने को खोजने में लगी हुई थीं।


साँवली सलोनी राधिका थी तो थोड़ी मोती, पर शायद अपने को सबसे अधिक भावप्रवण समझती थी। वह बोली, "ये रोल तो मुझे ही मिलना चाहिए। जैसे ही मैं इन संवादों को बोलूंगी, तो सब पर छा जाऊंगी।" चंद्रा उसके बड़बोलेपन को सहन नहीं कर सकी और उसने पलट वार किया, "जानती हो, मुझसे सुन्दर पूरे कॉलेज में कोई नहीं है। मुमताज़ तो सुन्दरता की मिसाल थी। अतः इस पात्र को निभाने के लिए मैं पूर्ण रूप से अधिकारी हूँ।"


शीबा कैसे चुप रह जाती? बोली, "वाह! मैं ही मुमताज़ का किरदार निभा पाऊंगी। जानती हो, मुझसे अच्छी उर्दू तुम में से किसी को नहीं आती। यदि संवाद सही उच्चारणों के साथ न बोले जाएँ तो क्या मज़ा?"


राधिका तीखी आवाज़ मैं बोली, "ज़रा अपनी सूरत तोह देखो! क्या हिरोइन ऐसी काली कलूटी होती हैं?!"


सुनते ही शीबा उबल पड़ी, "तुम क्या हो, पहले अपने को आईने में निहारो। बिल्कुल मुर्रा भैंस नज़र आती हो।"


"अजी, बिना बात की बहस से क्या लाभ होगा? देख लेना, सर तो मुझे ही यह रोल देंगे। मैं सुन्दर भी हूँ और... प्यारी भी।", मोना ने अपना मत जताया।


"बस बस। रहने भी दो। ड्रामे में हकले तक्लों का कोई काम नहीं होता। हाँ, यदि किसी हकले का कोई रोल होता, to शायद तुम धक् भी जातीं।", मानसी हाँथ नचाते हुई बोली।


इसी तरह आपस में हुज्जत होने लगी और शोर कक्ष के बाहर तक सुनाई देने लगा।बाहर घूम रहे लड़के भी कान लगाकर जानने की कोशिश में लग गये की आखिर मांजरा क्या है?


इस व्यर्थ की बहस की परिणीती देखने को मिली सांस्कृतिक प्रोग्राम में।


पर्दा उठा और हास्य प्रहसन "मुमताज़ की तलाश" की शुरुवात हुई।


एक भारी भरकम प्रोफेस्सर मंच पर अवतरित हुए। वह अपने नाटक की रूप रेखा बताने लगे। फिर आयीं भिन्न भिन्न प्रकार की नायिकाएं और अपना अपना पक्ष रखने लगीं मुमताज़ के पात्र के लिए।


फिर पूरा मंच एक अपूर्व अखाड़े में परिवर्तित हो गया और बेचारे प्रोफेस्सर साहब सिर पकड़कर बैठ गये। उनके मुख से निकला, "हाय!!! कहाँ से खोजूं मुमताज़ को?! यहाँ तो कई कई मुमताज़ हैं!"


और पटाक्षेप हो गया।


3 comments:

Ramakant Singh said...

BEAUTIFUL I WILL DO IT THIS YEAR IN MY SCHOOL .THANKS.......

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

आदरणीया आशा जी ..यथार्थ को दर्शाती कहानी ....बहुत से ऐसे मुद्दे आते हैं जिन पर पहले हम या पहले आप ....नोक झोंक आते रहते हैं ..कौन पीछे जाना चाहता है काश हम सही समय पर अपना अभिनेता नेता चुन लें जो sach अभिनय के अधिकारी हैं ..आत्मावलोकन भी हो ...
सुन्दर
भ्रमर ५

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

प्रिय रमाकांत जी ..अच्छी रचना आप के ब्लॉग पर ..... ,,,आज विरोधाभाषी स्थितियां और ऐसे नज़ारे बहुत दीखते हैं ही ...आशय समझ नहीं आया रमाकांत सिंह जी ने रमाकांत झा को ??
प्रतापगढ़ साहित्य प्रेमी मंच पर आप आये ...आभार और स्वागत है ....
मुमताज की भूमिका स्कूल में जरुर ...
भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण