कई परतों में दबी आग
अनजाने में चिनगारी बनी
जाने कब शोले भड़के
सब जला कर राख कर गए |
फिर छोटी छोटी बातें
बदल गयी अफवाहों में
जैसे ही विस्तार पाया
वैमनस्य ने सिर उठाया |
दूरियां बढ़ने लगीं
भडकी नफ़रत की ज्वाला
यहाँ वहां इसी अलगाव का
विकृत रूप नज़र आया |
दी थी जिसने हवा
थी ताकत धन की वहाँ
वह पहले भी अप्रभावित था
बाद में बचा रहा |
गाज गिरी आम आदमी पर
वह अपने को न बचा सका
उस आग में झुलस गया
भव सागर ही छोड़ चला |
आशा
7 comments:
थी ताकत धन की वहाँ
वह पहले भी अप्रभावित था
बाद में बचा रहा |
गाज गिरी आम आदमी पर
वह अपने को न बचा सका
उस आग में झुलस गया
भव सागर ही छोड़
आदरणीया आशा जी ..बहुत सुन्दर और सटीक ..आज का समाज ऐसा ही है ...धन का मान है पापी को कुछ नहीं हो रहा और गरीब ईमानदार बेचारे भवसागर पार ऐसे ही ...आभार ,,सुन्दर मूल भाव ..जय श्री राधे ---.भ्रमर ५
टिप्पणी के लिए धन्यवाद सुरेन्द्र जी
sundar bhaav liye sundar rachana
नंदिता जी जय श्री राधे आभार आप का प्रोत्साहन हेतु ---भ्रमर ५
samaaj ki visangtiyoN ko
rekhaankit karti huee
saarthak rachnaa ... !
नंदिता जी टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद |इसी प्रकार स्नेह बनाए रखें
आशा
दानिश जी धन्यवाद टिप्पणी के लिए |
आशा
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