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Saturday 14 April 2012

नफरत


कई परतों में दबी आग
अनजाने में चिनगारी बनी
जाने कब शोले भड़के
सब जला कर राख कर गए |
फिर छोटी छोटी बातें
बदल गयी अफवाहों में
जैसे ही विस्तार पाया
वैमनस्य ने सिर उठाया |
दूरियां बढ़ने लगीं
भडकी नफ़रत की ज्वाला
यहाँ वहां इसी अलगाव का
विकृत रूप नज़र आया |
दी थी जिसने हवा
थी ताकत धन की वहाँ
वह पहले भी अप्रभावित था
बाद में बचा रहा |
गाज गिरी आम आदमी पर
वह अपने को न बचा सका
उस आग में झुलस गया
भव सागर ही छोड़ चला |
आशा

7 comments:

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

थी ताकत धन की वहाँ
वह पहले भी अप्रभावित था
बाद में बचा रहा |
गाज गिरी आम आदमी पर
वह अपने को न बचा सका
उस आग में झुलस गया
भव सागर ही छोड़
आदरणीया आशा जी ..बहुत सुन्दर और सटीक ..आज का समाज ऐसा ही है ...धन का मान है पापी को कुछ नहीं हो रहा और गरीब ईमानदार बेचारे भवसागर पार ऐसे ही ...आभार ,,सुन्दर मूल भाव ..जय श्री राधे ---.भ्रमर ५

Asha Lata Saxena said...

टिप्पणी के लिए धन्यवाद सुरेन्द्र जी

nanditta said...

sundar bhaav liye sundar rachana

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

नंदिता जी जय श्री राधे आभार आप का प्रोत्साहन हेतु ---भ्रमर ५

daanish said...

samaaj ki visangtiyoN ko
rekhaankit karti huee
saarthak rachnaa ... !

Asha Lata Saxena said...

नंदिता जी टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद |इसी प्रकार स्नेह बनाए रखें
आशा

Asha Lata Saxena said...

दानिश जी धन्यवाद टिप्पणी के लिए |
आशा