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Monday 11 November 2013

है कैसा पाषाण

है कैसा पाषाण सा
भावना शून्य ह्रदय लिए
ना कोइ उपमा ,अलंकार
या आसक्ति सौंदर्य के लिए |
जब भी सुनाई देती
टिकटिक घड़ी की
होता नहीं अवधान
ना ही प्रतिक्रया कोई |
है लोह ह्रदय या शोला
या बुझा हुआ अंगार
सब किरच किरच हो जाता
या भस्म हो जाता यहाँ |
है पत्थर दिल
खोया रहता अपने आप में
सिमटा रहता
ओढ़े हुए आवरण में |
ना उमंग ना कोई तरंग
लगें सभी ध्वनियाँ एकसी
हृदय में गुम हो जातीं
खो जाती जाने कहाँ |
कभी कुछ तो प्रभाव होता
पत्थर तक पिधलता है
दरक जाता है
पर है न जाने कैसा
यह संग दिल इंसान |
आशा


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

7 comments:

रविकर said...

सुन्दर प्रस्तुति-
आभार आदरणीया-

Asha Lata Saxena said...

सूचना हेतु धन्यवाद रविकर जी |
आशा

आशीष अवस्थी said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति व रचना आदरणीय श्री को धन्यवाद
एक सूत्र आपके लिए अगर समय मिले तो --: श्री राम तेरे कितने रूप , लेकिन ?
* जै श्री हरि: *

कालीपद "प्रसाद" said...

सुन्दर रचना !
नई पोस्ट काम अधुरा है

Jai bhardwaj said...

निराशा के गहरे कूप से भग्न हृदय के अवशेषों को साथ लेकर निकलती हुयी पंक्तियाँ ! अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक अभिनन्दन है.

Sadhana Vaid said...

बहुत बढ़िया रचना !

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

है पत्थर दिल
खोया रहता अपने आप में
सिमटा रहता
ओढ़े हुए आवरण में
सुन्दर रचना ...
काश ये पाषाण हृदय मानवीय संवेदनाओं भावों को समझ मानवता को गले लगा ले ...तो आनंद और आये आदरणीया आशा जी
भ्रमर ५