गदरायी हूं बंद कली हूं
मादक गंध बढ़ी ही जाती
आज बंद हूं मै परदे में
बड़ी सुरक्षित घुटन भी कुछ है
कैद कैद जैसे फंदे में
जकड़ी हूं स्वच्छंद नही हूं
आतुर हूं देखूं कुछ दुनिया
आकुल व्याकुल कैसी दुनिया?
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आज खिली हूं प्रकृति सुहानी
नेह भरी हूं नैनन पानी
सूरज चंदा तारे प्यारे पंछी उड़ते
अदभुत दुनिया अजब नजारे
मलयानिल की पवन छू रही
सिहरन गात है न्यारी प्यारी
खुशकिस्मत हूं खुशी हैं लोग
नैना भंवरे मुझे निहारें
आकुल व्याकुल क्या होगा कल?
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फूल बन गई कोमल कोमल
पंखुड़ियां रंगीन छुएं दिल
भंवरे अब मंडराते सारे
जन्नत परी जान भी वारें
कांटे भी सिहरन सिसकन भी
हवा विरोधी जब जब चलती
सुख या दुख कुछ समझ न पाऊं
मनहर मन खुश्बू भर जाऊं
आकुल व्याकुल खिली ही जाऊं।
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कभी शीश पर जटा कभी मैं
दूल्हा दुल्हन खूब सजाऊं
गुल गुलाब केतकी मनोहर
कामिनी चंपा मधु मालती
रात की रानी रजनी गंधा
नीम चमेली डोलन चम्पा
अगणित नाम से मैं इतराऊं
स्नेह मिले फूलूं इतराऊं
आकुल व्याकुल अनहोनी डर!
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कभी तोड़ते लेते खुश्बू
मसल कुचल देते हैं फेंक
रंग बिरंगा सारा सपना
काया मिलती मिट्टी धूल
सबरस यौवन मधु मकरंद
झूठी दुनिया कड़वा सच
पंच तत्व में मिलती काया
सच है ये ही जीवन मूल
उगा पेड़ फिर खिली कली
मुस्काते फिर झूम चली।
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश
भारत
4.50 _5.14 मध्याह्न
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