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Thursday, 8 April 2021

कर सोलह श्रृंगार नटी ये


 कर सोलह श्रृंगार नटी ये

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नीले नभ पे श्वेत बदरिया

मलयानिल मिल रूप आंकती

हिमगिरि पे ज्यों पार्वती मां

सुंदरता की मूर्ति झांकती

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शिव हों भोले ठाढे जैसे

बादल बड़े भयावह काले

वहीं सात नन्हे शिशु खेलें

ब्रह्मा विष्णु सभी सुख ले लें

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निर्झर झरने नील स्वच्छ जल

कल कल निनादिनी सरिता देखो

हरियाली चहुं ओर है पसरी

स्वर्ण रश्मि अनुपम छवि देखो

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कर सोलह श्रृंगार नटी ये

प्रकृति मोहती जन मन देखो

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श्वेत कबूतर ले गुलाब है

उड़ा आ रहा स्वागत कर लो

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फूल की घाटी तितली भौंरे

कलियों फूल से खेल रहे

खुशबू मादक सी सुगन्ध ले

नैन नशीले बोल रहे

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पंछी कुल है हमें जगाता

कलरव करते दुनिया घूमे

छलक उठा अमृत घट जैसे

अमृत वर्षा हर मुख चूमे

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हहर हहर तरू झूम रहे हैं

लहर लहर नदिया बल खाती

गोरी सिर अमृत घट लेकर

रोज सुबह आ हमे उठाती

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ओस की बूंदें मोती जैसे

दर्पण बन जग हमे दिखाती

करें खेल अधरो नैनों से

बड़ी मोहिनी हमे रिझाती

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कहीं नाचते मोर मोरनी

झंकृत स्वर हैं कीट पतंगे

रंग बिरंगी अद्भुत कृति की

शोभा निखरी किस मुंह कह दें

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मन कहता भर अनुपम छवि उर

नैन मूंद बस कुटी रमाऊं

स्नेह सिक्त मां तेरा आंचल

शिशु बन मै दुलराता जाऊं

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उठो सुबह हे! ब्रह्म मुहूरत

योग ध्यान से भरो खजाना

वीणा के सुर ताल छेड़ लो

क्या जाने कब लौट के आना ।

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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5

प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश

भारत 8.4.2021




सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

3 comments:

जितेन्द्र माथुर said...

शब्द-शब्द में प्रकृति के रूप-सौंदर्य को उकेरती मनभावन कविता जिसे पढ़कर मन आह्लादित हो उठे।

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

आदरणीय शास्त्री जी रचना आप के मन को छू सकी सुन ख़ुशी मिली, आभार

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

हार्दिक आभार माथुर जी आप की सुन्दर प्रतिक्रिया से मेरा मन भी आह्लादित हुआ , राधे राधे