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Saturday 10 December 2011

जिंदादिली ( कविता )-दिलबाग विर्क









ये रचना प्रिय दिलबाग विर्क द्वारा रचित है और सधन्यवाद प्रेषित है

जिंदादिली ( कविता )

तालियों की गड़गड़ाहट

और

पेट की भूख

कर देती है मजबूर

मौत के मुंह में उतरने को

यह जानते हुए कि

यह वीरता नहीं

मूर्खता है

बाजीगिरी

कोई चुनता नहीं शौक से

यह मुकद्दर है

गरीब समाज का

और इस मुकद्दर को

कला बनाकर जीना

जिन्दादिली है

और यह जिन्दादिली

जरूरी है क्योंकि

जिन्दगी जीनी ही पड़ती है

चाहे रो के जियो

चाहे हँस के जियो

चाहे डर के जियो

चाहे जिन्दादिली से जियो

द्वारा -दिलबाग विर्क

7 comments:

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

बहुत सुन्दर पंक्तियाँ सच में शुरुआत तो ऐसे ही हो जाती है ...लेकिन निभाते हुए जीते रहना जिन्दादिली है ही
भ्रमर ५

दिलबागसिंह विर्क said...

आभार भ्रमर जी
sahityasurbhi.blogspot.com

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

प्रिय दिलबाग जी अभिवादन ...आप का योगदान रहेगा इस ब्लॉग के लिए उम्मीद है ...आइये कला को यों ही प्रोत्साहित करें ..
हो सके तो इस ब्लॉग का समर्थन भी करें ..
आभार
भ्रमर ५

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...
This comment has been removed by the author.
SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

प्रिय बैजनाथ पाण्डेय जी अभिवादन ..और अभिनन्दन आप का .....त्वरित गति से आप ने यहाँ दर्शन दिया समर्थन किया ख़ुशी हुयी ...कुछ लिख कर उत्साह तो बढ़ाना था ...आइये कला को यों ही प्रोत्साहित करें ..

आभार
भ्रमर ५

Asha Lata Saxena said...

अच्छी प्रस्तुति |
बधाई |

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

धन्यवाद आशा जी अपना स्नेह बनाये रखें
भ्रमर ५