AAIYE PRATAPGARH KE LIYE KUCHH LIKHEN -skshukl5@gmail.com

Sunday 29 July 2012

बंधन जाति का


खिली कली बीता बचपन
जाने कब अनजाने में
दी दस्तक दरवाज़े पर
यौवन की प्रथम सीढ़ी पर
जैसे ही कदम पड़े उसके
आँखों ने छलकाया यौवन
हर एक अदा में सम्मोहन
वह दिल में जगह बना बैठी
  सजनी सपने में आ बैठी |
धीरे-धीरे कब प्यार हुआ
साथ जीने मरने का
जाने कब इकरार हुआ
छिप-छिप कर आना उसका
मन के सारे भेद बताना 
 फिर जी भर कर हँसना 
 निश्छल मन चंचल चितवन
आनन पर लहराती काकुल
मन में कर देती हलचल |
जब विवाह तक आना चाहा
जाति प्रथा का पड़ा तमाचा
ध्वस्त हुए सारे सपने
कोई भी नहीं हुए अपने |
माँ बाबा ने उसे बुला कर
मुझसे दूर उसे ले जा कर
जाति बंधु से ब्याह रचाया
  मुझसे नाता तुड़वाया 
 ऐसी क्या कमियाँ थीं मुझमें
 मै समझ नहीं पाया |
जाति में मन चाहा वर
भाग्यशाली ही पाता है
अक्सर यह लाभ
कुपात्र ही ले जाता है
वह थोड़ा बहुत कमाता था
बहुत व्यस्त है दर्शाता था
ऐसा भी कोई गुणी नहीं था
जिस कारण अकड़ा जाता था
सारी हदें पार करता था
बेबसी पर खुश होता था |
पहले तो वह झुकती जाती थी
हर बार पिता की इज्जत का
ख्याल मन में लाती थी
फिर घुट-घुट कर
 जीना सीख लिया
समाज से डरना सीख लिया |
मैं भी दस-दस आँसू रोया
फिर दुनियादारी में खोया
एक लम्बा अरसा बीत गया
यादों को मन में दफना कर
उन पर पर्दा डाल दिया
अब जीवन चलता पटरी पर
कहीं नहीं भटकता पल भर |
तेज हवा की आँधी सी वह
मेरे सामने खड़ी हुई थी
बहुत उदास आँखों में आँसू
खंडित प्रतिमा सी लग रही थी
उसके आँसू देख न पाया
जज्बातों को बस में करके
उसका हाल पूछना चाहा
पहले कुछ न बोल पाई
फिर धीरे से प्रतिक्रिया आई
ऐसा कैसा जाति का बंधन
जो बेमेल विवाह का कारक बन
जीने की ललक मिटा देता
कितनों का जीवन हर लेता |
जब उसकी व्यथा कथा को जाना
मनोदशा को पहचाना
नफरत से मन भर आया
विद्रोही मन उग्र हुआ
जाति प्रथा को जी भर कोसा |




आशा

Monday 23 July 2012

‘‘चिड़िया रानी’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

 
चिड़िया रानी फुदक-फुदक कर,
मीठा राग सुनाती हो।
आनन-फानन में उड़ करके,
आसमान तक जाती हो।।

मेरे अगर पंख होते तो,
मैं भी नभ तक हो आता।
पेड़ो के ऊपर जा करके,
ताजे-मीठे फल खाता।।

जब मन करता मैं उड़ कर के,
नानी जी के घर जाता।
आसमान में कलाबाजियाँ कर के,
सबको दिखलाता।।

सूरज उगने से पहले तुम,
नित्य-प्रति उठ जाती हो।
चीं-चीं, चूँ-चूँ वाले स्वर से ,
मुझको रोज जगाती हो।।

तुम मुझको सन्देशा देती,
रोज सवेरे उठा करो।
अपनी पुस्तक को ले करके,
पढ़ने में नित जुटा करो।।

चिड़िया रानी बड़ी सयानी,
कितनी मेहनत करती हो।
दाना-दुनका बीन-बीन कर,
पेट हमेशा भरती हो।।

अपने कामों से मेहनत का,
पथ हमको दिखलाती हो।।
जीवन श्रम के लिए बना है,
सीख यही सिखलाती हो।

Sunday 22 July 2012

उपेक्षिता

सजे सजाये कमरे में
मैंने उसे उदास देखा
आग्रह से यह पूछ लिया
उसका ह्रदय टटोल लिया
तुम क्यों सहमी सी रहती हो
आखिर ऐसा हुआ क्या है
जो नित्य प्रतारणा सहती हो |
पहले तो वह टाल गयी
फिर जब अपनापन पाया
हिचकी भर-भर कर रोई
मन जब थोड़ा शांत हुआ
अश्रु धार से मुँह धोया
तब उसने अपना मुँह खोला |
सजी धजी इक गुड़िया सी
मैं सब के हाथों में घूम रही
सब चुपचाप सहा मैने
अपने भाव न जता पाई
पर उपेक्षा सह न सकी
बहुत खीज मन में आई
मेरी अपेक्षा मरने लगी
दुःख के कगार तक ले आई |
व्यथा कथा उसकी सुन कर
मन में टीस उभर आई
मैं उसको कुछ न सुझा पाई
मन ही मन आहत हो कर
थके पाँव घर को आई |
ऐसा क्या था जो भेद गया
दिल दौलत दुनिया से मुझको
बहत दूर खींच लाया मुझको
मन ही मन कुरेद गया |
उसमें मैंने खुद को देखा
जीवन के पन्ने खुलने लगे
बीता कल मुझको चुभने लगा
मकड़ी का जाला बुनने लगा
फँस कर मैं उस मकड़ जाल में
अपने को भी न सम्हाल सकी
जो बात कहीं थी अन्तर में
होंठों तक आ कर रुकने लगी |
मैं भी तो उसके जैसी ही हूँ
कभी गलत और कभी सही
अनेक वर्जनाएं सहती हूँ
फिर किस हक से मैंने
उसका मन छूना चाहा
मन ही मन दुखी हुई अब मैं
क्यूँ मैने छेड़ दिया उसको
उसकी पीड़ा तो  कम न की
अपनी पीड़ा बढ़ा बैठी |


आशा

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Monday 16 July 2012

नर्मदा उदगम स्थल

सैयाद्री पहाड़ियों से
हरी भरी वादी मे
नर्मदा का  उदगम  देखा
ऊँची पहाड़ियों से
जल धाराओं का आना देखा

जब पड़ी प्रथम किरण
 सूरज की उन  पर
सुंदरता को बढते देखा
प्रकृति नटी के इस वैवभ का
प्रसार दिगदिगंत में देखा
यह अतुलनीय उपहार सृष्टि का
मन मोहक श्रंगार धारा का
दृष्टि जहां तक जाती है
उन पहाड़ियों में खो जाती है
धवल दूध सी धाराएं
कई मार्गों से आ कर 
कलकल निनाद  कर बहती 
बहते जल की स्वर लहरी
वादी को गुंजित करती
अद्भुद संगीत मन में भरती
प्रफुल्लित करती जाती 
हल्की हल्की बारिश भी
वहां से हटने नहीं देती
मन स्पंदित कर देती 
रुकने को बाध्य करती 
बिताया गया वहां हर पल
कई बार खींचता मुझको
मन करता है घंटों अपलक
निहारती रहूं उसको
वह हरियाली और जल की धाराएं
अपनी आँखों में भर लूं
फिर जब भी आँखें बंद करूं
हर दृश्य साकार करूं |
आशा




,

Sunday 15 July 2012

संशय

 
नभ में कितने तारे रोज़ निकलते हैं
कौन सितारा मुझको राह दिखायेगा ,
किसकी ज्योति करेगी मेरा पथ उजला
कौन पकड़ कर हाथ पार ले जायेगा !

उपवन में नित कितनी कलियाँ खिलती हैं ,
किसका सौरभ जीवन को महकायेगा ,
किसकी सुषमा अंतर सुन्दर कर देगी
किसका पारस परस प्राण भर जायेगा !

नदिया में नित कितनी लहरें उठती हैं
मन की पीड़ा कौन बहा ले जायेगी ,
सदियों से प्यासे इस मेरे तन मन को
अपने अमृत से प्लावित कर जायेगी !

दूर गगन में कितने पंछी उड़ते हैं
कौन लौट कर वापिस घर को आयेगा ,
किसके पंखों की धीमी आहट सुन कर
बूढ़ी माँ का हृदय धीर पा जायेगा !

कितने संशय मन में घर कर जाते हैं
कितने प्रश्नों से अंतर अकुलाता है ,
है वह आखिर एक कौन सा पल ऐसा    
जिसमें मन का हर उत्तर मिल जाता है ! 

साधना वैद
   



सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Saturday 14 July 2012

कोख को बचाने को... भाग रही औरतें



कोख को बचाने को भाग रही औरतें 
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ये कैसा अत्याचार है 
'कोख' पे प्रहार है 
कोख को बचाने को 
भाग रही औरतें 
दानवों का राज या 
पूतना का ठाठ  है 
कंस राज आ गया क्या ?
फूटे अपने भाग है ..
रो रही औरतें 
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उत्तर , मध्य , बिहार  से 
'जींद' हरियाणा चलीं 
दर्द से कराह रोयीं 
आज धरती है हिली 
भ्रूण हत्या 'क़त्ल' है 
'इन्साफ' मांगें औरतें ....
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जाग जाओ औरतें हे !
गाँव क़स्बा है बहुत 
'क्लेश' ना सहना बहन हे 
मिल हरा दो तुम दनुज 
कालिका चंडी बनीं 
फुंफकारती अब  औरतें ...
----------------------------------
कृष्ण , युधिष्ठिर अरे हे !
हम सभी हैं- ना -मरे ??
मौन रह बलि ना बनो रे !
शब्दों को अपने प्राण दो 
बेटियों को जन जननि हे !
संसार को संवार दो 
तब खिलें ये औरतें 
कोख को बचाने जो 
भाग रहीं औरतें 
---------------------
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'  
१४.७.२०१२
८-८.३८ मध्याह्न 
कुल्लू यच पी 






सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Sunday 8 July 2012

मेरा वतन मेरा वतन












मेरा    वतन    मेरा    वतन    
कोयल  की  मीठी     बोली सा   
ये   सतरंगी    रंगोली   सा   
नन्हें    -मुन्नों  की  टोली  सा  
दीवाली  सा  और  होली  सा  
मेरा  वतन .....................

ये  निर्मल  है  ..अति  पावन   है
सुन्दरतम  है  ..मनभावन  है  
ये   अद्भुत  है  ये  है  अनुपम  
मेरा  वतन  ..........................

ये  गहन   निशा  में  है  सविता    
ये  चन्द्रकिरण   की  शीतलता  
सूखी  भूमि   पर   है  सरिता   
और  कविराज   की  है  कविता   
मेरा  वतन  ....................


अभिराम  वत्स  ये  धरती  का  
ये  प्रिय   सखा  है  सृष्टि  का  
ये  हिम  शुभ्र  सा  है  उज्जवल  
ये  कलावंत का  है  कौशल  
मेरा  वतन  ......................

                                      जय  हिंद  !जय  भारत  !

                                                     शिखा  कौशिक  
                                                  [विख्यात ] 





Saturday 7 July 2012

फूल

 "फूल " क्यूं है सदा से आदर्श 
हर हाल, हर मौसम में क्यूं  कि 
मुस्कुराते हैं सहर्ष  |





दीप क्यूं है सदा से आदर्श 
क्योंकि तिमिर से सदैव 
कठिन संघर्ष 



                                                       जीवन तुझसे कहना यही है
फूलों से मुसकाते रहना 
दीपों सा जल लड़ते रहना 
छोड़ना  न आशा का दामन
संषर्ष से मुँह चुराना ना|

रूचि सक्सेना

Monday 2 July 2012

परमार्थी कर्कशता

कूंकती कोयल की वाणी 
मुग्ध  सुनता रह गया राहगीर 
कोयल  अपने लधु शिशुओं को 
पटक गयी कौए के घोंसले में |
कर्कश  कौआ ला रहा था 
छोटा छोटा दाना 
अपने नन्हें बच्चों के लिए 
एक क्षण राहगीर को भी लगा 
यूं स्वार्थी सुरीले -पन से
भली है परमार्थी कर्कशता |

रूचि सक्सेना 







उगता सूरज -धुंध में -महीने की सर्वश्रेष्ठ रचना (BEST CREATION OF THE MONTH)




महीने की सर्वश्रेष्ठ रचना (BEST CREATION OF THE MONTH)- ओ बी ओ पर 












शीर्षक :- उगता सूरज -धुंध में 
लेखक:- सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'
वर्तमान स्थान:- कुल्लू (हि.प्र.)
पुरस्कार का नाम :- "महीने की सर्वश्रेष्ट रचना पुरस्कार"
पुरस्कार की राशि :- रु. 551/- मात्र
प्रायोजक :- गोल्डेन बैंड इंटरटेनमेंट    (G-Band ) H.O.F-315, Mahipal Pur-Ext. New Delhi.

हमारे सभी प्रिय मित्रों का तहे दिल से आभार ...भ्रमर 5 




उगता सूरज -धुंध में
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कर्म फल -गीता
क्रिया -प्रतिक्रिया
न्यूटन के नियम
आर्किमिडीज के सिद्धांत
पढ़ते-डूबते-उतराते
हवा में कलाबाजियां खाते
नैनो टेक्नोलोजी में
खोजता था -नौ ग्रह से आगे
नए ग्रह की खोज में जहां
हम अपने वर्चस्व को
अपने मूल को -बीज को
सांस्कृतिक धरोहर को
किसी कोष में रख
बचा लेंगे सब -क्योंकि
यहाँ तो उथल -पुथल है
उहापोह है ...
सब कुछ बदल डालने की
होड़ है -कुरीतियाँ कह
अपनी प्यारी संस्कृति और नीतियों की
चीथड़े कर डालने की जोड़ -तोड़ है
बंधन खत्म कर
उच्छ्रिंख्ल होने की
लालसा बढ़ी है पश्चिम को देख
पूरब भूल गया -उगता सूरज
धुंध में खोता जा रहा है
कौन सा नियम है ?
क्या परिवर्तन है ?
सब कुछ तो बंधा है गोल-गोल है
अणु -परमाणु -तत्व
हवा -पानी -बूँदें
सूरज चंदा तारे
अपनी परिधि अपनी सीमा
जब टूटती है -हाहाकार
सब बेकार !
आँखों से अश्रु छलक पड़े
अब घर में वो अकेला बचा था
सोच-व्याकुलता-अकुलाहट
माँ-बाप भगवान को प्यारे
भाई-बहन दुनिया से न्यारे
चिड़ियों से स्वतंत्र हो
उड़ चले थे ...............
फिर उसे रोटियाँ
भूख-बेरोजगारी
मुर्दे और गिद्ध
सपने में दिखने लगते
और सपने चकनाचूर
भूख-परिवर्तन -प्रेम
इज्जत -आबरू
धर्म -कानून-अंध विश्वास
सब जंजीरों में जकड़े
उसे खाए जा रहे थे .....
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३.०२-३.४५ पूर्वाह्न
कुल्लू यच पी १३.०२.२०१२
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः