AAIYE PRATAPGARH KE LIYE KUCHH LIKHEN -skshukl5@gmail.com

Thursday 31 May 2012

लक्ष्मण रेखा



क्यूं बंद किया
लक्ष्मण रेखा के घेरे मै
कारण तक नहीं समझाया
ओर वन को प्रस्थान किया
यह भी नहीं सोचा
मैं भी एक मनुष्य हूँ
स्वतन्त्रता है अधिकार मेरा
यदि आवश्कता हुई
अपने को बचाना जानती हूं
पर शायद यहीं मै गलत थी
अपनी रक्षा कर न सकी
रावण से ख़ुद को बचा न सकी
मैं कमजोर थी अब समझ गयी हूं
यदि तुम्हारा कहा
सुन लिया होता
अनर्गल बातों से
दुखित तुम्हें न किया होता
राम तक पहुंचने के लिए
कष्ट मैं उनहें देख
जाने के लिए तुम्हें
बाध्य ना किया होता
मैं लक्ष्मण रेखा पार नहीं करती
यह दुर्दशा नहीं होती
विछोह भी न सहना पड़ता
अग्नि परीक्षा से न गुजरना पड़ता
धोबी के कटु वचनों से
मन भी छलनी ना होता
क्या था सही ओर क्या गलत
अब समझ पा रही हूं
इसी दुःख का निदान कर रही हूं
धरती से जन्मी थी
फिर धरती में समा रही हूं |
आशा


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Tuesday 29 May 2012

दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर-

दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर

O B O द्वारा आयोजित 

"चित्र से काव्य तक" प्रतियोगिता अंक -१४

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कुंडली
बालक सोया था पड़ा,  माँ-बापू से खीज |
मेले में घूमा-फिरा, मिली नहीं पर चीज  |
मिली नहीं पर चीज, करे पुरकस नंगाई  |
नटखट नाच नचाय, नींद निसि निश्छल आई |
हो कठपुतली नाच, मगन मन जागा गोया ।
डोर कौतिकी खींच,  करे खुश बालक सोया ||

कुंडली
नहीं बिलौका लौकता, ना ही कुक्कुर भौंक |
खिड़की भी तो बंद है, देखे भोलू चौंक |
देखे भोलू चौंक, लाप लय लहर अलौकिक |
हो दोनों तुम कौन, पूँछता परिचय मौखिक |
मंद मंद मुस्कान, मौन को मिलता मौका |
रविकर मन की चाह, कभी क्या नहीं बिलौका ||

दोहे
कठपुतली बन नाचते, मीरा मोहन-मोर |
दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर ||

कौतुहल वश ताकता, बबलू मन हैरान |
*मुटरी में हैं क्या रखे, ये बौने इन्सान ??
*पोटली
बौने बौने *वटु बने, **पटु रानी अभिजात |
कौतुकता लख बाल की, भूप मंद मुस्कात ||
*बालक **चालाक
राजा रानी दूर के, राजपुताना आय |
चौखाने की शाल में, रानी मन लिपटाय ||
भूप उवाच-
कथ-री तू *कथरी सरिस, क्यूँ मानस में फ़ैल ?
चौखाने चौसठ लखत, मन शतरंजी मैल ||
*नागफनी / बिछौना
बबलू उवाच-
हमरा-हुलके बाल मन, कौतुक बेतुक जोड़ |
माया-मुटरी दे हमें, भाग दुशाला ओढ़ ||

कुंडलिया
गर जिज्ञासा बाल की, होय कठिनतर काम ।
सदा बाल की खाल से, निकलें प्रश्न तमाम ।
निकलें प्रश्न तमाम, बने उत्तर कठपुतली ।
करे सुबह से शाम, जकड ले बोली तुतली |
है दर्शन आध्यात्म, समझ जो पाओ भाषा |
रविकर शाश्वत मोक्ष, मिटा दो गर जिज्ञासा ||

(2)
रविकर तन-मन डोलते, खोले हृदयागार |
स्वागत है गुरुवर सभी, प्रकट करूँ आभार |
प्रकट करूँ आभार, सार जीवन का पाया |
ओ बी ओ ने आज, सत्य ही मान बढाया |
अरुण निगम आभार, कराया परिचय बढ़कर |
शुचि सौरभ संसार, बहुत ही खुश है रविकर ||

Monday 28 May 2012

मन चंचल


मन चंचल है
नहीं कुछ करने देता
तब सफलता हाथों से
कोसों दूर छिटक जाती है
उस चंचल पर नहीं नियंत्रण
इधर उधर भटकता
और अधिक निष्क्रिय बनाता
भटकाव यह मन का
नहीं कहीं का छोड़ेगा
बेचैनी बढ़ती जायेगी
अंतर मन झकझोरेगा
क्या पर्वत पर
 क्या सागर में
या फिर देव स्थान में
मिले यदि न शांति तो
क्या रखा है संसार में
साधन बहुत पर
जतन ना किया तब
यह जीवन व्यर्थ अभिमान है
मन चंचल 
यदि बाँध ना पाए
सकल कर्म निष्प्राण है |
आशा

Thursday 24 May 2012

मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै


प्यारी बिटिया खुश्बू के ब्लॉग से .....




आज  आप  सब के आशीष से  हमें दोहरी ख़ुशी नसीब हुयी एक  तो जन्म दिन पर आप सब का आशीष और भरपूर प्यार और दूसरी तरफ आज यू पी बी एड का परीक्षा फल घोषित हुआ जिसमे मै खुश्बू १७५५ वी रैंक हासिल कर सकी जितनी आशा थी नहीं कर पायी लेकिन घर परिवार आप सब का प्यार यों ही मिलता रहेगा तो इस समाज के लिए कुछ न कुछ रचनात्मक करूंगी ..
आप सब का बहुत बहुत आभार ...बहुत आभारी हूँ मै अपने गुरुओं का , माँ पिता भाई बहन और आप सब का भी .....अब मंजिलों पर कदम बढ़ चले हैं ....हरी ओउम 
खुश्बू
पुत्री  आप सब के  "भ्रमर"  जी 









मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं 
तितली सी उडती जाती मै 
बड़ी दूर तक  देखो तुम्हे छकाये 
मलयानिल संग घूम फिरूं मै 
उड़ उड़ आती अपना पर फैलाये 
मै खुश्बू हूँ........... मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं 
----------------------------------------
सुन्दर-सुन्दर पुष्प हमारे 
जननी-जनक हैं न्यारे 





भगिनी -भाई बड़े दुलारे 
कोमल आँख के तारे 
सभी ख़ुशी हैं उनको देखे
खिंचे चले ही आते 
सुन्दर जब परिवेश हमारा 
बगिया हरी भरी हो
प्रेम पुष्प जब खिलें ह्रदय तो
खुश्बू मन भर ही जाती 
मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं ….
-------------------------------
आनंदित जब मन हों  अपने 
दुनिया अच्छी लगती 
गुल-गुलशन अपना खिल जाए 
बात ये बिलकुल सच्ची 
गले मिलें सौहार्द्र भरा हो 
हर मन हर को प्यार भरा हो 
सभी कृत्य अपने हों अच्छे 
बिना चाह के -जैसे बच्चे 
मगन रहूँ मै ... मै खुश्बू हूँ 
मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं ….

----------------------------------
मै खुश्बू हूँ सदा सुवासित 
अन्तरंग तेरा महकाऊँ
रोम -रोम पुलकित कर तेरा 
जोश -होश सारा दे जाऊं 
अधरों पर मुस्कान खिलाती 
खुशियों की बरसात कराती 
मै खुश्बू हूँ ....
मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं ….

------------------------------------- 
मेरे जन्म-दिवस पर आना 
खुश्बू मन भर -भर ले जाना 
अपने आशीर्वचन सुनाना 
मै जीवंत रहूँ इस उपवन 
सांस में तेरी सदा -सदा -'वन '
गाँव -शहर या गिरि कानन  सब 
दिल में तेरे बसी चलूँ मै 
उन्नति पथ पर सदा उडाऊं 
तितली सा मै रंग -बिरंगी 
सपने तेरे सच कर जाऊं 
इस घर उस घर जहां भी जाऊं 
महकूँ मै महकाती जाऊं 
मै खुश्बू हूँ मगन रहूँ मै
महकूँ मै महकाती जाऊं ….
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 
२४.५.२०१२ कुल्लू यच पी 
७-७.२६ पूर्वाह्न 



सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Wednesday 23 May 2012

मुमताज की तलाश



मुमताज़ की तलाश...

बात बहुत पुरानी है, पर आज भी सोचने पर हसी आ ही जाती है...


कॉलेज का वार्षिकोत्सव होने को था।श्री अवस्थी ने एक एकांकी लिखा और उसके मंचन हेतु उपयुक्त पत्रों की खोज प्रारंभ की।सभी महत्त्वपूर्ण और प्रमुख भूमिका करना चाहते थे।लड़कियों में भी चर्चा ज़ोरों पर थी।अलग अलग व्यक्तित्व वाली लड़कियों में मुमताज़ की भूमिका पाने की होड़ लगी हुई थी। सकारण अपना अपना पक्ष रख कर उस किरदार में अपने को खोजने में लगी हुई थीं।


साँवली सलोनी राधिका थी तो थोड़ी मोती, पर शायद अपने को सबसे अधिक भावप्रवण समझती थी। वह बोली, "ये रोल तो मुझे ही मिलना चाहिए। जैसे ही मैं इन संवादों को बोलूंगी, तो सब पर छा जाऊंगी।" चंद्रा उसके बड़बोलेपन को सहन नहीं कर सकी और उसने पलट वार किया, "जानती हो, मुझसे सुन्दर पूरे कॉलेज में कोई नहीं है। मुमताज़ तो सुन्दरता की मिसाल थी। अतः इस पात्र को निभाने के लिए मैं पूर्ण रूप से अधिकारी हूँ।"


शीबा कैसे चुप रह जाती? बोली, "वाह! मैं ही मुमताज़ का किरदार निभा पाऊंगी। जानती हो, मुझसे अच्छी उर्दू तुम में से किसी को नहीं आती। यदि संवाद सही उच्चारणों के साथ न बोले जाएँ तो क्या मज़ा?"


राधिका तीखी आवाज़ मैं बोली, "ज़रा अपनी सूरत तोह देखो! क्या हिरोइन ऐसी काली कलूटी होती हैं?!"


सुनते ही शीबा उबल पड़ी, "तुम क्या हो, पहले अपने को आईने में निहारो। बिल्कुल मुर्रा भैंस नज़र आती हो।"


"अजी, बिना बात की बहस से क्या लाभ होगा? देख लेना, सर तो मुझे ही यह रोल देंगे। मैं सुन्दर भी हूँ और... प्यारी भी।", मोना ने अपना मत जताया।


"बस बस। रहने भी दो। ड्रामे में हकले तक्लों का कोई काम नहीं होता। हाँ, यदि किसी हकले का कोई रोल होता, to शायद तुम धक् भी जातीं।", मानसी हाँथ नचाते हुई बोली।


इसी तरह आपस में हुज्जत होने लगी और शोर कक्ष के बाहर तक सुनाई देने लगा।बाहर घूम रहे लड़के भी कान लगाकर जानने की कोशिश में लग गये की आखिर मांजरा क्या है?


इस व्यर्थ की बहस की परिणीती देखने को मिली सांस्कृतिक प्रोग्राम में।


पर्दा उठा और हास्य प्रहसन "मुमताज़ की तलाश" की शुरुवात हुई।


एक भारी भरकम प्रोफेस्सर मंच पर अवतरित हुए। वह अपने नाटक की रूप रेखा बताने लगे। फिर आयीं भिन्न भिन्न प्रकार की नायिकाएं और अपना अपना पक्ष रखने लगीं मुमताज़ के पात्र के लिए।


फिर पूरा मंच एक अपूर्व अखाड़े में परिवर्तित हो गया और बेचारे प्रोफेस्सर साहब सिर पकड़कर बैठ गये। उनके मुख से निकला, "हाय!!! कहाँ से खोजूं मुमताज़ को?! यहाँ तो कई कई मुमताज़ हैं!"


और पटाक्षेप हो गया।


Friday 18 May 2012

दिशा हीन



दिशा हीन सा भटक रहा ,
आज यहां तो कल वहां ,
अपनी मंजिल खोज रहा ,
आज यहां तो कल वहां
क्या चाहता है कल क्या होगा ,
इसका कोइ अंदाज नहीं ,
कल भी वह अंजाना था ,
अपने सपनों में खोया रहता था ,
लक्ष क्या है नहीं जानता था ,
बिना लक्ष दिशा तय नहीं होती ,
यह भी सोचता न था ,
पढता था इस लिये ,
कि पापा मम्मी चाहते थे ,
या इसलिए कि,
बिना डिग्री अधूरा था ,
पर डिग्री ले कर भी ,
और बेकार हुआ आज ,
जो छोटा मोटा काम ,
शायद कभी कर भी पाता ,
उसके लिए भी बेकार हुआ ,
ख्वाब बहुत ऊंचे ऊंचे ,
जमीन पर आने नहीं देते ,
जिंदगी के झटकों से ,
दो चार होने नहीं देते ,
हर समय बेकारी सालती है ,
मन चाही नौकरी नहीं मिलती ,
यदि नौकरी नहीं मिली ,
तो आगे हाल क्या होगा ,
यही सवाल उसको ,
अब बैचेन किये रहता है ,
यदि थोड़ी भी हवा मिली ,
एक तिनके की तरह ,
उस ओर बहता जाता है
पैदा होती हजारों कामनाएं ,
कईसंकल्प मन में करता है ,
कोइ विकल्प नजर नहीं आते ,
दिशा हीन भटकता है |
आशा
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Wednesday 16 May 2012

भूखी बाहर रोवे अम्मा | अन्दर सोवे पूत निकम्मा |

साठ साल की हो ली माता । पूत धर्म-संसद बैठाता ।
इक आसन पर मातु विराजी । आये पंडित मुल्ला काजी ।|

तहरीरें सब ताज़ी-ताज़ी । आपस में दिखते सब राजी ।
फर्द-बयानी जीते बाजी | भाई-चारा  हाँ जी माँ जी ।।

आजा-'दी वो ताजा मौका  |  देशी घी का लगता छौंका ।
पंगत में मिलकर सब खाता । साठ साल की हो ली माता ।।



खाना पीना मौज मनाना | धमा चौकड़ी रोब ज़माना |
पहले भांजें बहरू चाचा । शास्त्री एक पत्रिका बांचा ।

बुआ चूड़ियाँ रही बांटती | ढाका मलमल शुद्ध काटती |
निपटे सभी पचहत्तर झंझट | नई पार्टी बैठी झटपट |

सोमनाथ का तांडव नर्तन | झटपट खटपट करते बर्तन |
नई बही पर चालू  खाता  । साठ साल की हो ली माता ।|


दुहरी सदस्यता का मसला | देसाई कुर्सी से फिसला |
जै जै जै जै दुर्गे माता | जो भी आता शीश नवाता |

आये मिस्टर क्लीन बटोरें | नई सोच से सबको जोड़े ।
बाल-ब्रह्मचारी ने आ के | करते बढ़कर अटल धमाके |

रात हुई मन मौन हो गए | कुर्सी तख्ता सदन धो गए |
जूठी पत्तल कुत्ते चाटें | भौंके डकरें दौड़े  कांटे  ||

भूखी बाहर रोवे अम्मा | अन्दर सोवे पूत निकम्मा |
साधू मन का प्राण सुखाता । साठ साल की हो ली माता ।

Monday 14 May 2012

झील के किनारे














चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !


जहाँ दिखा था पानी में प्रतिबिम्ब तुम्हारा ,
उस इक पल से जीवन का सब दुःख था हारा ,
कितनी मीठी यादों के थे नभ में तारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !


जहाँ फिजां में घुला हुआ था नाम तुम्हारा ,
फूलों की खुशबू में था अहसास तुम्हारा ,
मीठे सुर में पंछी गाते गीत तुम्हारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !


जहाँ हवा के झोंकों में था परस तुम्हारा ,
हर साये में छिपा हुआ था अक्स तुम्हारा ,
पानी पर जब लिख डाले थे नाम तुम्हारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !


शायद अब भी वहीं रुकी हो बात तुम्हारी ,
किसी लहर में कैद पड़ी हो छवि तुम्हारी ,
मेरे छूने भर से जो जी जायें सारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !


मन का रीतापन थोड़ा तो हल्का होगा ,
सूनी राहों का कोई तो साथी होगा ,
तुम न सही पर यादें होंगी साथ हमारे ,
चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे !




साधना वैद




सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Sunday 13 May 2012

अहंकार

                                                



अहंकारी खो देता सम्मान
ओर विवेक भी करता दान  
"सब कुछ है वह"यही सोच 
दूसरों का करता अपमान 
अहंकार जन्मजात नहीं होता  
कमजोरों पर ही हावी होता
अहम् भाव से भरा हुआ वह
सब को हेय समझता है
यह भाव यदि हावी हो जाये
मनुष्य गर्त में गिरता है
अहंकार से भरा हुआ वह
उस घायल योद्धा सा है
जो कुछ भी कर नहीं सकता
पर जीत की इच्छा रखता है
यह  कोई हथियार नहीं
जिसके बल शासक बन पाये
स्वविवेक भी साथ ना दे 
तर्क शक्ति भी खो जाये
जो अहम् छोड़ पाया
सही दिशा खोज पाया
सफल वही हो पाया
यह कहावत सच्ची है
घमंडी का सिर नीचा होता 
है समय अधिक बलवान 
सही सीख दे जाता है |




आशा
 सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Thursday 10 May 2012

ओ माँ ओ माँ ..प्रेम सुधा रस प्राण-दायिनी जान हमारी "माई" है



प्रेम सुधा रस प्राण-दायिनी जान हमारी "माई" है 
ओ माँ ओ माँ ...........
-----------------
मै अनभिज्ञं  रहा था कुछ दिन नाल तुम्हारे लटका 
अंधकार था सोया संग -संग साथ तुम्हारे भटका 
चक्षु हमारे भले बंद थे -साथ रहा हंसता रोता 
तेरा सहारा -भोजन ले मै -खून भी लेकर पला -बढ़ा 
तेरे दुर्दिन -कड़े परिश्रम -आह-आह तेरा करना 
दोल रहा था साक्षी बन मै मन ही मन रोया करता 
जेठ दुपहरी बारिस के दिन वो चक्की का चलना 
हिलता -डुलता भीगा-भीगा -कभी कभी जल  भी जाता 
पेट में तेरे कर कोमल से नमन तुझे था करता रहता 
 ओ माँ ओ माँ .......
 प्रेम सुधा रस प्राण-दायिनी जान हमारी "माई" है 
ओ माँ ओ माँ ..............
----------------------------------------
तू है नैन हमारी माता प्यार का स्रोत तुम्ही हो 
तू सूरज है चंदा है गुरु ईश -सब कुछ-तुमही हो 
तेरे सहारे खड़ा हुआ मै -चलना जग में सीखा 
सांप है क्या -क्या रस्सी है माँ अद्भुत मन्त्र से मन जीता 
भव -सागर मै घिरा -लहर जब शक्ति तुमही बन आयी 
मन में उतारी आंसू पोंछे -जीवन-ज्योति जगाई 
तू हंसती तो खिल जाता मै -किलकारी मै मारूं 
अद्भुत असीम आनंद मै पा के जीवन तुझ पे वारूँ 
 ओ माँ ओ माँ .......
 प्रेम सुधा रस प्राण-दायिनी जान हमारी "माई" है 
ओ माँ ओ माँ ..............
----------------------------
तू अमृत की धार का सोता जिसे मिली ना ममता-रोता 
प्रेम प्यार करुना का घट तू जिसे मिला जीवन भर ढोता -
शीश रहे ये ! आंचल छाया-जीवन जगती फिर क्या कम है 
माँ की ही संताने हम सब -सभी हैं  अपने -फिर क्या गम है 
ये सौहाद्र मिलन-मन -संगम चार धाम सब तीर्थ तभी हो 
विकसे कमल सी कला हमारी -झंडा ऊंचा छुए गगन हो 
परम पुनीत नाम तेरा माँ जपते झंडे नीचे आयें 
तेरे गुण के  सभी पुजारी -माँ कब कौन उऋण  हो पाए 
दे ऐसा संस्कार हमें माँ गर्व से सीने हमें लगाए 
ओ माँ ओ माँ ..............
 प्रेम सुधा रस प्राण-दायिनी जान हमारी "माई" है 
ओ माँ ओ माँ ..............
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नहीं कोई है जग में माता तुझसा जो निःस्वार्थ करे 
झिडकी खा भी ताने सह भी शिशु को "जाँ" सा प्यार करे 
ऋषि देवगन मानव सब की है प्यारी तू जग कल्याणी 
जग रचती तू मधु घोलती कभी बड़ी कर्कश है वाणी 
तुम्ही भारती तुम्ही हो वीणा तुम आदर्श तुम्ही संस्कृति हो 
बड़े हुए तो क्या हे ! माता , कान पकड रस्ता दिखला दो 
दूध की तेरी लाज न भूलूँ जब तक "जाँ" सत्कर्म निभाऊं 
माँ -माँ कह मै अंत विदा लूं --आँखों का तारा बन जाऊं 
चरणों में नत शीश हमारा आंचल छाया दे दे 
ओ माँ ओ माँ .......
 प्रेम सुधा रस प्राण-दायिनी जान हमारी "माई" है 
ओ माँ ओ माँ ..............
७.५८-८.४९ कुल्लू यच पी 
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल "भ्रमर'  
10.05.2012


MAA SAB MANGAL KAREN

Monday 7 May 2012

चले चतुर चौकन्ने चौकस-

श्वेत कनपटी तनिक सी, मुखड़ा गोल-मटोल ।
नई व्याहता दोस्त की, खिसकी अंकल बोल ।
चले चतुर चौकन्ने चौकस ।|

केश रँगा मूंछे मुड़ा, चौखाने की शर्ट |
अन्दर खींचे पेट को, अंकल करता फ्लर्ट |
मिली तवज्जो फिर तो पुरकस ||


धुर-किल्ली ढिल्ली हुई, खिल्ली रहे उड़ाय |
जरा लीक से हट चले, डगमगाय बलखाय |
रहा सालभर चालू सर्कस ||

दाढ़ी मूंछ सफ़ेद सब, चश्मा लागा मोट ।
इक अम्मा बाबा कही, सांप कलेजे लोट ।
बैठ निहारूं खाली तरकस ।।

Sunday 6 May 2012

कल्पना ही रोमांचक है



दी है दस्तक दरवाज़े पर
 ठंडी हवा ने जाड़े में
 गुनगुनी धूप में  बेटे का स्वेटर बुन रही हूँ ,
जल्दी ही पूरा हो जायेगा 
क्या करती कोई नई बुनाई ना मिल पाई  
उसे खोजने में इतने दिन यूँही बीत गये 
कई किताबें देखीं पत्रिकाएँ खरीदीं 
पर वही घिसे पिटे नमूने थे 
कुछ भी तो नया नहीं था
छोटे मोटे परिवर्तन कर
 की गयी प्रस्तुति देख मन खराब हुआ 
फिर पुराना जखीरा नमूनों का 
खुद ही खोज डाला 
नर्म गर्म ऊन का अहसास 
सलाई पर उतरते फंदे 
और जाड़ों की कुनकुनी धूप 
बेहद अच्छी लगती है 
उँगलियों की गति तीव्र हो जाती है 
और जुट जाती हूँ उसे
 स्वेटर में सहेजने में 
जब वह उसे पहन निकलेगा 
उसे रोक कोशिश होगी
 स्वेटर देख नमूना उतारने की
 असफलता जब हाथ लगेगी
 सब को बहुत कोफ्त होगी 
बुनाई क़ी होड़ में सबसे आगे रहने में
जो आनंद मिलेगा 
उसकी कल्पना ही रोमांचक है !

आशा
MAA SAB MANGAL KAREN

Thursday 3 May 2012

संघर्ष गृहणी का

      !अपनी ड्रेसेज निकालते क्यूँ नहीं ?ड्राइक्लीनिंग को देनी हैं न!आठ दिन हो गए कहते कहते |चाचा की शादी में जाना है कि नहीं ?अहमदाबाद से चाचा का भी फोन आया था |बेटी अनसुनी  कर बापिस ती.वी. में डूब गयी |
       मैं भी उससे कह तो आई पर खुद ही न समझ पाई कैसे जुगाड लगाऊं कहाँ से तैयारी शुरू करूँ ,और कहाँ खतम करूं|अरे हां अभी गप्पू की फीस भी तो जमा करनी है |पंखुरी की कॉलेज की फीस की तारीख भी आने वाली है  |शायद तिमाही फीस ही भर पाऊं अभी |
    चार पांच बार सामान की लिस्ट बना कर मोड कर पर्स  की छोटी जेब में रख लेती |स्कूल से लौट कर आवाज लगाई !"पंखुड़ी ज़रा मेरा चश्मा  तो लाना बेटा पढ़ने वाला "
  "लीजिए माँ "------
चश्मा लगा के फिर से पूरे ध्यान से लिस्ट पर निगाह दौडाई -
अठारह कपडे ड्राई क्लीनिग के लिए
बारह  कपडे प्रेस के
पंखुरी कई दिन से जींस दिलाने को कह रही थी |बात मन में तो थी मेरे पर उस समय अनदेखा सा कर दिया था |
मैनेज होगया तोवह भी दिला दूंगी |
     "राम राम भाभी  मैं तीन दिन नहीं आऊँगी और हां भाई की शादी के लिए कुछ उपहार तो देना होगा |मुझे ३-४ हजार रुपयों की जरूरत है "कहती हुई महरी आ धमकी
    हूँ |हूँ ---
उफ एक और नया खर्चा आन टपका |खैर फिर से शादी की तैयारी पर ध्यान देने लगी नए कपडे लाने का आइडिया कट कर लूंगी |
पंखुरी भागती हुई आई और मोबाइल पर आया  मैसेज दिखाने लगी ,"आज कोचिंग की फीस भरनी है माँ |और १-२ हजार ज्यादा देना |मैंने एक किताब तो एक्सचेंज कर ली है पर तीन आप दिला देना "
फिर मेरी तरफ कुछ संशय से देखा और बोली "पक्का आज करवा दोगी ना माँ "
  ट्रिंग ट्रिंग घंटी बजी |सासूजी का फोन आया था |\सो उधर भागी
प्रश्न उछला क्या हुआ बल्लू को ?उसे यहाँ भेज दो हम ध्यान रख लेंगे बार बार तबियत बिगड रही है उसकी |
धीरे से गप्पू ने कहा," दादी पापा की रिपोर्ट आगई है |उन्हें टाईफाइड हुआ है |
"अब तो बहुत ध्यान रखना उसका |बाहर का खाना बंद कर दो |बिसलरी का ही पानी देना और फल ज्यादा से ज्यादा देना तबियत अच्छी हो तो सब अच्छा लगे "
     जल्दी जल्दी डाक्टर के पास भागे |एहतियात के तौर पर जानेमाने  आयुर्वेदाचार्य को भी दिखाया आराम तो काफी हुआ पर खर्चे की मत पूंछो |पूरे हफ्ते का वेतन कट गया सो अलग |
"बेटा ज़रा डायरी तो देना आज का खर्च लिख दूं उसमें "
अरे मम्मी आप तो बेकार ही लिखती है कभी तेली तो होता नहीं |लीजिए किखिये |
२४५० /-संपत्ति कर
९८०/-मोबाइल बिल
१४००/- बिल बिजली
अब बारी  गप्पू की थी बोला  "आपको याद है कि नहीं ?मेरे वोकेशनल गाइडेंस वाले सर का फोन आया था |बहुत अच्छा समझाते हैं और मेरी आने वाली पढाई की शिदूलिग़ भी कर देंगे "
हां हां क्यूं नहीं ? मेरे मुंह से निकला |
मन ही मन में मैंने सोचा -तू क्यूं छोड़ता है ?बोल डाल
   सोचते सोचते जल्दी जल्दी चप्पल पैरों में डाल स्कूल को भागी चिंता थी कहीं ड्यूटी के लिए विलम्ब न हो जाए
|बाकी गणनाएं नए सिरे से बापिस आकार करूंगी |आखिर माध्यम वर्ग की गृहणी को तपस्या यूं ही नहीं कहा गया है |


  लेखिका
 रूचि सक्सेना