दुःख ही दुःख का कारण है
दिल पर एक बोझ है
मन मष्तिष्क पर छाया कोहराम है
आँखों में धुंध है
पाँवो की बेड़ियाँ हैं
हाथों में हथकड़ी है
धीमा जहर है
विषधर एक -ज्वाला है !!
राख है – कहीं कब्रिस्तान है
तो कहीं चिता में जलती
जलाती- जिंदगियों को
काली सी छाया है !!
फिर भी दुनिया में
दुःख के पीछे भागे
न जाने क्यों ये
जग बौराया है !!
यहीं एक फूल है
खिला हुआ कमल सा – दिल
हँसता -हंसाता है
मन मुक्त- आसमां उड़ता है
पंछी सा – कुहुक कुहुक
कोयल –सा- मोर सा नाचता है
दिन रात भागता है -जागता है
अमृत सा -जा के बरसता है
हरियाली लाता है
बगिया में तरुवर को
ओज तेज दे रहा
फल के रसों से परिपूर्ण
हो लुभाता है !!
गंगा की धारा सा शीतल
हुआ वो मन !
जिधर भी कदम रखे
पाप हर जाता है !!
देखा है गुप्त यहीं
ऐसा भी नजारा है
ठंडी हवाएं है
झरने की धारा है
(फोटो साभार गूगल से)
(फोटो साभार गूगल से)
भंवर है
पर एक किनारा है
-जहाँ शून्य है
आकाश गंगा है
धूम केतु है
पर चाँद
एक मन भावन
प्यारा सा तारा है !!
शुक्ल भ्रमर ५
29.05.2011 जल पी बी
4 comments:
बड़े सहज ढंग से आपने दुःख के सामानांतर सुख के दृश्य उपस्थित किये हैं....
इस कविता में आपकी वैचारिक त्वरा की मौलिकता नई दिशा में सोचने को विवश करती है।
विचार
आदरणीया रश्मि प्रभा जी नमस्कार -सच कहा आप ने दुःख के सामानांतर सुख दोनों ही हमारे आस पास विद्यमान है जरुरत है तो बस धनात्मक दृष्टिकोण रखने की -
आशा है आप अपने सुझाव , समर्थन , स्नेह देती रहेंगी
साभार -
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
आदरणीय मनोज जी हार्दिक अभिनन्दन आप का इस ब्लॉग पर त्वरित प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद -और नमस्कार -इस रचना की मौलिकता नयी दिशा की ओर-जीवन को धनात्मक दिशा की ओर ले जाने को प्रेरित करती लगी सुन हर्ष हुआ -कृपया आप अपने सुझाव , समर्थन , स्नेह देते रहेंगे देती रहेंगी
साभार -
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
Post a Comment