हिंसा का औचित्य कहां अब
सन्मुख बैठो बात करो
उठा तिरंगा शांति दूत बन
पीछे ना आघात करो
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राज तंत्र से मन खट्टा जो
न्याय तंत्र विश्वास करो
काले गोरे नहीं लड़ाई
अपने सब तुम ध्यान रखो
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कट्टरता आतंक है खांई
खोल आंख पहचान करो
तेरा मेरा घर ना भाई
काल अग्नि सम ध्यान धरो
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दंभ वीरता का ना भरना
उनकी मां भी वीर जनी हैं
अस्त्र शस्त्र सब राख ही होना
दावानल की नही कमी है
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सागर है उस पार नहीं कुछ
भ्रम मत पालो बढ़े चलो
कुछ मांझी तैराक बहुत हैं
साथ चलो कुछ मोती ढूंढो
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दीवाली का दिया जलाओ
घर आंगन कुटिया रहने दो
दर्द दिए मां नही रुलाओ
अश्रु प्रलय से जग बचने दो
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सुरेंद्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश
भारत। 5.10.2021
1 comment:
अद्भुत गीत रचा है सुरेंद्र जी आपने। अभिनंदन। गीत के पांचवें छंद की अंतिम पंक्ति सम्भवतः 'कुछ मोती ढूंढो, साथ चलो' होनी चाहिए।
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