बात पिछले साल की
पिछले वर्ष ना जाने क्या हुआ इन्द्र देव अचानक रूठ गए | जब गर्मी आई तो बिना पानी के बहुतसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा |पहले नल रोज आते थे , फिर ४ दिनमें एक बार और बाद में यह स्थिती हो गई की नल में टपकती पानी की एक बूंद देखने को भी तरस गए | टेंकरों से दूर दूर से पानी लाया जाता था | अन्य स्त्रोतों को भी सफाईके बाद उपयोग में लाया गया | पर फिर भी पूर्ति न हो पाई शहर से बहुत दूर के जल स्त्रोत से चैनल कटिंग कर बहुतही महंगी योजना अपना कर पानी सोने के भाव उपलब्ध हुआ | पर जैसेही स्थिति सामान्य हुई , मानसून सक्रीय हुआ हमें अखवार में पढने को मिला की इतनी मेहनत से बनाई गई चैनल को समाप्त किया जा रहा है | मै कई दिन तक सोचती रही उसको तोड़ने से क्या फायदा हुआ इतना धन उसे बनाने में लगा और फिर उसे तोड़ने में |क्या यह धन का दुरूपयोग नहीं है ? यदि उस स्त्रोत के जल का उपयोग नहीं करना था तब भी उसे यथावत रख कर फिर किसी कठिन समय के लिए सहेजा जा सकता था | क्या पता कब इसकी आवश्यकता हो जाती |पर शान को कौन समझाए , बार बार की तोडा फोड़ी सरकारी खर्च को बढ़ती है | इससे लाभ की जगह हानी ही होती है जितना सरकार खर्च करती है , उसका प्रभाव आम नागरिकपर ही तो पड़ता है |
आशा
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सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
3 comments:
सरकारी माया यही है :)
धन्यवाद सर |
जी आशा जी सारा बोझ ढोने के लिए हम नागरिक और साधारण लोग ही तो हैं ..सुन्दर कहानी
भ्रमर ५
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