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Thursday, 25 July 2013

एक कली

कली खिली बिरवाही में  
महकी चहकी 
पहचान बनी 
रंग भरा प्रातः ने 
संध्या ने रूप संवारा
जीवन हुआ 
 सरस सुनहरा 
पर धूप सहन ना कर पाई 
वह कुम्हलाई 
तब साथ निभा कर
 उसे हंसाया
 मंद पवन के झोंके ने 
तरंग  उमंग  की जगी
तरुनाई छाने लगी
है इतनी अल्हड़
जब  भी निगाहें ठहरती 
टकटकी सी लग जाती 
देखती ही रह जातीं 
वह सकुचाती 
अपने आप में 
 सिमटना चाहती 
यही है कुछ ख़ास 
जो  नितांत उसका अपना 
देखते तो हैं पर 
उसे छू नहीं सकते 
पर सपने में भी उससे 
दूर हो नहीं सकते |
आशा 


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः