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Thursday, 25 April 2013

आधा तीतर आधा बटेर

जाग जाग रातें  काटीं
मुश्किलें  किसी से न बांटीं
कभी खोया -खोया रहा
कभी जार जार रोया
कठिनाइयां बढती गईं
कमीं उनमें न आई
सुबह और शाम
  मंहगाई का बखान
रात  में आते
स्वप्न में भी गरीबी
फटे कपडे और उधारी
वह बेरोजगार डिग्री धारी
हाथ  न मिला पाया
भ्रष्टाचार  के दानव से
सोचता दिन रात
जाए तो जाए कहाँ
वह कागज़ का टुकड़ा
मजदूरी भी करने न देता
जब  भी लाइन में लगा
कहा गया "जाओ बाबू
यह  तुम्हारे बस  का नहीं
क्यूँ  की तुम
 आम आदमीं नहीं "
इस डिग्री ने तो कहीं का न छोड़ा
ना ही कुछ बन पाया
ना ही आम आदमीं से जुड़ा
आधा तीतर आधा बटेर
मात्र बन कर रह गया
मन में बहुत ग्लानी हुई
समाधान समस्या का नहीं
यह कैसे समझाए की
वह भी है एक आम आदमीं
कर्ज के बोझ से दबा है
इस डिग्री के लिए
जो अभी तक चुका नहीं
तभी तो  काम की तलाश में
दर दर भटक रहा है |
आशा


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

3 comments:

Unknown said...

बहुत सुन्दर! बधाई स्वीकारें!
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SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

आदरणीया आशा जी ..सुन्दर भाव विचारणीय विषय ..आम आदमी करे तो क्या करे पहाड़ सी मुसीबतें हर तरफ ...
भ्रमर ५

Asha Lata Saxena said...

आप लोगों की टिप्पणियाँ लिखने को बल देती हैं |मेरे ब्लॉग आकांक्षा पर भी आएं |
आशा