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Tuesday 5 March 2013

विचलन


चारों और घना अन्धकार
मन होता विचलित फँस कर
इस माया जाल में
विचार आते भिन्न भिन्न
कभी शांत उदधि की तरंगों से
तो कभी उन्मत्त उर्मियों से
वह शांत न रह पाता
कहाँ से शुरू करू ?
क्या लिपिबद्ध  करूं ?
मैं समझ नहीं पाता
है सब  मकड़ी के जाले सा
वहाँ  पहुंचते ही फिसल जाता 
सत्य असत्य में भेद न हो पाता
आकाश से टपकती बूँदें
कराती नया अद्भुद अनुभव
पर दृश्य चारों और का
कुछ और ही अहसास कराता
कहीं भी एकरूपता नहीं होती
कैसे संवेदनाएं नियंत्रित करूं
मन  विचलित ना हो जाए
ऐसा क्या उपाय करूं ?

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः


2 comments:

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

है सब मकड़ी के जाले सा
वहाँ पहुंचते ही फिसल जाता
सत्य असत्य में भेद न हो पाता
आकाश से टपकती बूँदें
कराती नया अद्भुद अनुभव
आदरणीया आशा जी सचमुच मन को नियंत्रण करना या उपाय ढूंढना दुष्कर है कितना सम्हाल लिया जाए कोशिशें चलें ...सुन्दर रचना
भ्रमर ५

Asha Lata Saxena said...

टिप्पणी हेतु धन्यवाद भ्रमर जी