चारों और घना अन्धकार
मन होता विचलित फँस कर
इस माया जाल में
विचार आते भिन्न भिन्न
कभी शांत उदधि की तरंगों से
तो कभी उन्मत्त उर्मियों से
वह शांत न रह पाता
कहाँ से शुरू करू ?
क्या लिपिबद्ध करूं ?
मैं समझ नहीं पाता
है सब मकड़ी के जाले सा
वहाँ पहुंचते ही फिसल जाता
सत्य असत्य में भेद न हो पाता
आकाश से टपकती बूँदें
कराती नया अद्भुद अनुभव
पर दृश्य चारों और का
कुछ और ही अहसास कराता
कहीं भी एकरूपता नहीं होती
कैसे संवेदनाएं नियंत्रित करूं
मन विचलित ना हो जाए
ऐसा क्या उपाय करूं ?
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
2 comments:
है सब मकड़ी के जाले सा
वहाँ पहुंचते ही फिसल जाता
सत्य असत्य में भेद न हो पाता
आकाश से टपकती बूँदें
कराती नया अद्भुद अनुभव
आदरणीया आशा जी सचमुच मन को नियंत्रण करना या उपाय ढूंढना दुष्कर है कितना सम्हाल लिया जाए कोशिशें चलें ...सुन्दर रचना
भ्रमर ५
टिप्पणी हेतु धन्यवाद भ्रमर जी
Post a Comment