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Saturday, 9 March 2013
सेहत से हत भाग्य पर-
औरत रत निज कर्म में, मिला सफलता मन्त्र । सेहत से हत भाग्य पर, नरम सुरक्षा तंत्र ।
Tuesday, 5 March 2013
मै आतंकी बनूँ अगर माँ खुद “फंदा” ले आएगी
प्रिय दोस्तों इस रचना को ( कोई नहीं सहारा ) आज ३.३.२०१3 के दैनिक जागरण अखबार में कानपुर रायबरेली (उ.प्रदेश भारत ) आदि से प्रकाशित किया गया रचना को मान और स्नेह देने के लिए आप सभी पाठकगण और जागरण जंक्शन का बहुत बहुत आभार
भ्रमर ५
भ्रमर ५
मै आतंकी बनूँ
अगर माँ खुद "फंदा" ले आएगी
हम सहिष्णु हैं
भोले भाले मूंछें ताने फिरते
अच्छे भले बोल मन
काले हम को लूटा करते
भाई मेरे बड़े
बहुत हैं खून पसीने वाले
अत्याचार सहे हम
पैदा बुझे बुझे दिल वाले
कुछ प्रकाश की
खातिर जग के अपनी कुटी जलाई
चिथड़ों में थी
छिपी आबरू वस्त्र लूट गए भाई
माँ रोती है फटती
छाती जमीं गयी घर सारा
घर आंगन था भरा
हुआ -कल- कोई नहीं सहारा
बिना जहर कुछ
सांप थे घर में देखे भागे जाते
बड़े विषैले इन्ही
बिलों अब सीमा पार से आते
ज्वालामुखी दहकता
दिल में मारूं काटूं खाऊँ
छोड़ अहिंसा बनूँ
उग्र क्या ?? आतंकी कहलाऊँ ?
गुंडागर्दी दहशत
दल बल ले जो आगे बढ़ता
बड़े निठल्ले पीछे
चलते फिर आतंक पसरता
ना आतंक दबे
भोलों से - गुंडों से तो और बढे
कौन 'राह' पकडूँ मै पागल घुट घुट पल पल खून जले
बन अभिमन्यु जोश
भरे रण कुछ पल ही तो कूद सकूं
धर्म युद्ध अब
कहाँ रहा है ?? ‘वीर’ बहुत- ना जीत सकूं
मटमैली इस माटी
का भी रंग बदलता रहा सदा
कभी ओढती चूनर
धानी कभी केसरिया रंग चढ़ा
मै हिम हिमगिरि
गंधक अन्दर 'अंतर' देखो खौल रहा
फूट पड़े जो- सागर
भी तब -अंगारा बन उफन पड़ा
समय की पैनी धार
वार कर सब को धूल मिला देती
कोई 'मुकद्दर' ना 'जग' जीता अंत यहीं दिखला देती
तब बच्चा था अब
अधेड़ हूँ कल मै बूढा हूँगा
माँ अब भी अंगुली
पकडे हे ! बुरी राह ना चुनना
कर्म धर्म आस्था
पूजा ले परम -आत्मा जाने
प्रतिदिन घुट-घुट
लुट-लुट भी माँ ‘अच्छाई’ को ‘अच्छा’ माने
भोला भाला मै अबोध बन टुकुर टुकुर ताका करता
खुले आसमाँ तले 'ख़ुशी' को शान्ति जपे ढूँढा करता
मै आतंकी बनूँ
अगर ‘माँ ‘ खुद "फंदा" ले आएगी
पथरायी आँखे पत्थर
दिल ले निज हाथों पहनाएगी
सुरेन्द्र कुमार
शुक्ल 'भ्रमर' ५
प्रतापगढ़ उ प्र
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल ‘भ्रमर’ ५
प्रतापगढ़ उ प्र
प्रतापगढ़ उ प्र
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
विचलन

चारों और घना अन्धकार
मन होता विचलित फँस कर
इस माया जाल में
विचार आते भिन्न भिन्न
कभी शांत उदधि की तरंगों से
तो कभी उन्मत्त उर्मियों से
वह शांत न रह पाता
कहाँ से शुरू करू ?
क्या लिपिबद्ध करूं ?
मैं समझ नहीं पाता
है सब मकड़ी के जाले सा
वहाँ पहुंचते ही फिसल जाता
सत्य असत्य में भेद न हो पाता
आकाश से टपकती बूँदें
कराती नया अद्भुद अनुभव
पर दृश्य चारों और का
कुछ और ही अहसास कराता
कहीं भी एकरूपता नहीं होती
कैसे संवेदनाएं नियंत्रित करूं
मन विचलित ना हो जाए
ऐसा क्या उपाय करूं ?
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
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