झलक मिलती है सूरज की
उग उठे बादल करे क्या
भनक मिलती है मूरख की
मुह खुले-आभूषण करे क्या
सोने पर धूल पड़े कितनी पर
सोना ही रह जाता है
घोड़े पर चढ़ ले मुकुट पहन
वो राजा ना बन जाता है
आतिशबाजी सी चकाचौंध बस
दीपक ना बन जाता है
खातिरदारी मुंह दांत दिखे बस
दीमक सा खा जाता है
कुल नाश करे- अधिकार मिला
उन्माद भरे ही विचार करे
“भ्रमर” कहें वो लुहार भला
घन मार सभी जो सुधार करे
निज रक्त चाट के खुश होवे
लम्पट- मद में धन नाश करे
निज भक्त मान के सब खोये
कंटक पथ में वह वास करे
जब यार चार मिल जाएँ तो
विद्वानों का उपहास करे
सब नीति नियम ही मेरी मानो
फूलों का दो हार हमें
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल
३.०६.२०११ जल पी बी
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