"ये भटके लोग मिल जाते "
ये लाल रंग ,
इन्हें उन्हें हमें ,
हम सबको प्यारा है ,
इसके कतरे छीटें बूँदें ,
अनायास जो यहाँ वहां ,
बह रहे मिटटी में मिल रहे ,
पैरों तले रौंदे जा रहे ,
शोले भड़का रहे ,
नफरत की दीवार बन ,
दिन प्रतिदिन रजनीति में ,
अणु परमाणु ढूंढ रहे ,
बारूद भर रहे ,
कपड़ा और मकान तो दूर ,
रोटी और पेट पर लात ,
ये क्या कलयुगी बात !
कब तक जोहें हम ,
कल्कि की बाट ,
आओ हम मिल जुल ,
छोड़ रीति ढुलमुल ,
संजोये सम्हालें ,
इन बहती बूंदों को ,
बनायें तस्वीरें सपनो की ,
भरें रंग - ये "लाल रंग" ,
इन्हें - उन्हें - हमें ,
हम सबको - जो प्यारा है ,
लगता है नजर लग गयी ,
किसी की हमारे “स्वर्ग ” को ,
ये कितने प्यारे कितने काम के ,
कुदरत की अमूल्य देन ,
निकले थे जो हरियाली लाने ,
बसाने चाँद , सूरज आशियाँ ,
भटक गए …
भूल गए .. कुछ रास्ता ..लक्ष्य ,
भटक रहे दिशा विहीन ,
पहाड़ो घाटियों में ,
भूखे लोग सहमे बच्चे ,
भागते फिर रहे …
काश कोई तथाकथित ..
अल्लाह …गाड …भगवान ..
ओझा नेता ..राजनेता ,
जादूगर छड़ी घुमाता ,
“ये भटके लोग” मिल जाते ….
हरियाली लौट आती ,
और इस "चमन " में -
फिर से “अमन ”
वही फूल खिल जाते …
सुरेंद्रशुक्ला “भ्रमर ” जम्मू & कश्मीर
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