AAIYE PRATAPGARH KE LIYE KUCHH LIKHEN -skshukl5@gmail.com

Tuesday, 25 December 2012

आत्म मंथन

देह रोग -शैया पर पड़ी 
डोर सहस्त्र बंधनॉ की चढी 

नेत्रों को कष्ट देना है मना 
तनाव कहीं ज्वर का कर न  दे दूना 
मुख  को भी देना है विश्राम 
 कि बोलने से  महती शक्ति होती बेकाम

हाथों को रखना शांत अधिक न डुलाना 
अतिक्रिया शीलता से है बड़ा ही  खतरा 
पैरों  को चाल नहीं देनी है ज्यादा 
डगमगा कर गिरने को ना हो आमादा 
उदर  तो बेचारा यूँ ही शांत है
जिव्ह्या का स्वाद जो बिगाड़ बैठा 
पर  फिर भी इस मन को कोई वैद भी न डाट सका 
न धमका सकी किसी माँ  की फटकार 
न  काट सकी इसके पंख चेतावनियाँ 
पहुंच गया प्रति पल गतिमान पी की नगरिया 

लाता ही होगा अगला पल कोई नई खबरिया
मुक्ति मार्ग को प्रशस्त कर पाने की खबरिया |
कवयित्री---
रूचि सक्सेना







Saturday, 24 November 2012

परिवार की इज्ज़त -लघु कथा

 परिवार की इज्ज़त -लघु कथा  .


'स्नेहा....स्नेहा ....' भैय्या  की कड़क आवाज़ सुन स्नेहा रसोई से सीधे उनके कमरे में पहुंची .स्नेहा से चार साल बड़े आदित्य  की आँखें  छत  पर घूमते पंखें पर थी और हाथ में एक चिट्ठी थी .स्नेहा के वहां पहुँचते ही आदित्य ने घूरते हुए कहा -''ये क्या है ?' स्नेहा समझ गयी मयंक की चिट्ठी भैय्या के हाथ लग गयी है .स्नेहा ज़मीन की ओर देखते हुए बोली -'भैय्या मयंक बहुत अच्छा ....'' वाक्य पूरा कर भी न पायी थी  कि   आदित्य ने  जोरदार तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया और स्नेहा चीख पड़ी '' भैय्या ..''.आदित्य  ने उसकी चोटी पकड़ते हुए कहा -''याद रख स्नेहा जो भाई तेरी इज्ज़त बचाने के लिए किसी और की जान ले सकता है वो ....परिवार की इज्ज़त बनाये रखने के लिए तेरी भी जान ले सकता है .'' ये कहकर आदित्य ने झटके से स्नेहा की चोटी छोड़ दी और  वहां से निकल कर घर से बाहर चला गया ..आदित्य के जाते ही दीवार पर टंगी माता-पिता की तस्वीरें देखती हुई स्नेहा वही बैठ गयी . मन ही मन सोचने लगी -''आज अगर वे जिंदा होते तो शायद मैं कुछ कर पाती ...पर भैय्या ......लेकिन अगर भैय्या  को पसंद नहीं तो मैं ...अब मयंक से नहीं मिलूंगी .''दिन का गया आदित्य जब रात के बारह बजे तक भी न लौटा तो स्नेहा का दिल घबराने लगा .राह देखते देखते उसकी आँख लग गयी .माथे  पर कुछ सटा होने के अहसास से उसकी आँख खुली तो आदित्य को सिरहाने खड़ा पाया उसके हाथ के रिवॉल्वर को अपने माथे पर लगा पाया .स्नेहा कुछ बोलती इससे पहले ही आदित्य रिवॉल्वर का ट्रिगर दबा चूका था और आदित्य के कानों में गूँज रहे थे गली के कोने में खड़े लफंगों के शब्द .....''ये देखो खुद की रोज़ी-रोटी चलाने को बहन को धंधे पर लगा दिया ...अजी कौन जाने किस किस से चक्कर है ....हम ही क्या बुरे हैं...... कुछ भेंट तो हम भी चढ़ा  देते ...और ...और जोरदार ठहाके !!!
                                                                                    शिखा कौशिक 'नूतन '

                              

Friday, 9 November 2012

दीपावली


टिमटिमाते तारे गगन में
अंधेरी रात अमावस की
दीपावली आई तम हरने
लाई सौगात खुशियों की |
कहीं जले माटी के दीपक
रौशन कहीं मौम बत्ती
चमकते लट्टू बिजली के
विष्णु प्रिया के इन्तजार में |
बनने लगी मावे की गुजिया
चन्द्रकला और मीठी मठरी

द्वार खुला रखा सबने
स्वागतार्थ लक्ष्मी के |
आतिशबाजी और पटाखे
हर गली मोहल्ले में
नन्ही गुडिया खुश होती
फुलझड़ी की रौशनी में |
समय देख पूजन अर्चन
करते देवी लक्ष्मी का
खील बताशे और मिठाई
होते प्रतीक घुलती मिठास की
|
दृश्य होता मनोरम
तम में होते प्रकाश का
होता मिलन दौनों का
रात्री और उजास का |
प्रकाश हर लेता तम
फैलाता सन्देश स्नेह का
चमकता दमकता घर
करता इज़हार खुशियों का |
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Monday, 22 October 2012

"गीत गाना जानते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

वेदना की टीस को पहचानते हैं। 
हम विरह में गीत गाना जानते हैं।।

दुःख से नाता बहुत गहरा रहा,
मीत इनको हम स्वयं का मानते हैं।

हम विरह में गीत गाना जानते हैं।।

हर उजाले से अन्धेरा है बंधा,
खाक दर-दर की नहीं हम छानते हैं।
हम विरह में गीत गाना जानते हैं।।


शूल के ही साथ रहते फूल हैं,
बैर काँटों से नहीं हम ठानते हैं

 हम विरह में गीत गाना जानते हैं।

Tuesday, 16 October 2012

वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्‌ ||



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माँ शैलपुत्री पूर्ण रूपेण माँ की प्रकृति में दर्शित हैं , उन्हें देवी पार्वती प्रभु शिव की अर्धांगिनी , गणेश देवा और कार्तिकेय भगवान् की माँ के नाम से भी जाना जाता है नवरात्रि के प्रथम दिन माँ शैल पुत्री की पूजा आरम्भ होती है उनके माथे पर अर्ध चन्द्र विराजमान है और दायें हाथ में त्रिशूल धारण किये हैं बाएं हाथ में कमल का पुष्प , उनका वाहन नंदी एक वृषभ के रूप में हैं
वंदे वाद्द्रिछतलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम |
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्‌ ||
दुर्गा पूजा के प्रथम दिन माता शैलपुत्री की पूजा-वंदना इस मंत्र द्वारा की जाती है.
मां दुर्गा की पहली स्वरूपा और शैलराज हिमालय की पुत्री शैलपुत्री के पूजा के साथ ही दुर्गा पूजा आरम्भ हो जाता है. नवरात्र पूजन के प्रथम दिन कलश स्थापना के साथ इनकी ही पूजा और उपासना की जाती है. नवरात्र के इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं और यहीं से उनकी योग साधना प्रारंभ होती है.
एक पौराणिक कथानुसार (शिव पुराण और देवी भागवतम में ) मां शैलपुत्री अपने पूर्व जन्म में प्रजापति दक्ष के घर कन्या रूप में उत्पन्न हुई थी. उस समय माता का नाम सती था और इनका विवाह भगवान् शंकर से हुआ था. एक बार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ आरम्भ किया और सभी देवताओं को आमंत्रित किया परन्तु भगवान शिव को आमंत्रण नहीं दिया. अपने मां और बहनों से मिलने को आतुर मां सती बिना निमंत्रण के ही जब पिता के घर पहुंची तो उन्हें वहां अपने और भोलेनाथ के प्रति तिरस्कार से भरा भाव मिला. मां सती इस अपमान को सहन नहीं कर सकी और वहीं योगाग्नि द्वारा खुद को जलाकर भस्म कर दिया और अगले जन्म में शैलराज हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया. शैलराज हिमालय के घर जन्म लेने के कारण मां दुर्गा के इस प्रथम स्वरुप को शैल पुत्री कहा जाता है.
आओ अपने वातावरण को हर तरह से स्वच्छ रख अपने मन और तन को शुद्ध कर माँ दुर्गे की आराधना और भजन पूजन आरती करें ये नौ दिन हमारे जीवन में यादगार बने कुछ नयी ऊर्जा भरे हमारे जीवन में , खुश रहें खुश रखें पवित्र हो सब , निश्चित ही माँ सब मंगलमय करेंगी और सब का कल्याण होगा दुष्टों का भी सुधार करें माँ , उन्हें सदबुद्धि दें और इंसानियत का पाठ पढ़ा दें कुछ चमत्कार हो
जय माता दी
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जय माँ वैष्णो जय माँ शेरो वाली
सभी मित्र मण्डली और उनके घर परिवार सगे सम्बन्धियों को नवरात्रि की हार्दिक शुभ कामनाएं
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
कुल्लू यच पी
ब्लॉगर प्रतापगढ़ उ.प्र.
१६.१०.२०१२



सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Thursday, 11 October 2012

उड़ चला पंछी


उड़ चला पंछी


उड़ चला पंछी कटी पतंग सा
अपनी यादें छोड
समस्त बंधनों से हो  मुक्त 
उस अनंत आकाश में
छोड़ा सब कुछ यहीं
यूँ ही इसी लोक में
बंद मुट्ठी ले कर आया था
आते वक्त भी रोया था
इस दुनिया के
प्रपंच में फँस कर
जाने कितना सह कर
इसी लोक में रहना था
आज मुट्ठी खुली हुई थी
जो पाया यहीं छोड़ा
पुरवासी परिजन छूटे
वे रोए याद किया
अच्छे कर्मों का बखान किया
पर बंद आँखें  न खुलीं
वह चिर निद्रा में सो गया
वारिध ने भी दी जलांजलि
वह बंधन मुक्त  हो गया
पञ्च तत्व से बना पिंजरा
अग्नि में विलीन हो गया |
आशा
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Tuesday, 25 September 2012

बेटी

बेटी अजन्मी सोच रही 
क्यूँ  उदास माँ दिखती है 
जब  भी कुछ जानना चाहूँ 
यूँ  ही टाल देती है|
रह ना पाई कुलबुलाई 
समय देख प्रश्न  दागा 
क्या  तुम मुझे नहीं चाहतीं 
मेरे  आने में है दोष क्या 
क्यूँ  खुश दिखाई नहीं देतीं ?
 माँ  धीमे से मुस्कुराई 
पर  उदासी न छिपा पाई 
बेटी  तू यह नहीं जानती 
सब  की चाहत है बेटा 
जब  तेरा आगमन होगा 
सब  से मोर्चा   लेना होगा 
यही  बात चिंतित करती 
मन  में उदासी भरती |
जल्दी  से ये दिन बीते 
खिली  रुपहली धूप 
आज  मेरे आँगन में 
गूंजी  तेरी किलकारी 
इस  सूने उपवन में
मिली  खुशी अनूप 
तुझे  पा लेने में |
देखा  सोच बदलता मैनें 
अपने  ही घर में |
कितना  सुखमय है जीवन 
आज  में जान पाई 
रिश्तों  की गहराई 
यहीं  नजर आई |
तेरी  नन्हीं बाहों की उष्मा
और प्यार भरी सुन्दर अँखियाँ 
स्वर्ग कहीं से ले  आईं 
मेरे  मुरझाए जीवन में |
आशा
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Sunday, 23 September 2012

कल चला था पुनः राह मै उसी दिल में यादों का तूफाँ समेटे हुए …




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( फोटो साभार गूगल / नेट से लिया गया )









कल चला था पुनः राह मै उसी
दिल में यादों का तूफाँ समेटे हुए ...
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रौशनी छन के आई गगन से कहीं
दिल के अंधियारे दीपक जला के गयी
राह टेढ़ी चढ़ाई  मै चढ़ता गया
दो दिलों की सी धड़कन मै सुनता रहा
कोई सपनों में रंगों को भरता रहा
रागिनी-मोहिनी-यामिनी-श्यामली
मेंहदी गोरी कलाई पे रचता रहा
छम -छमा-छम सुने पायलों की खनक
माथ बिंदिया के नग में था उलझा हुआ
इंद्र-धनुषी छटा में लिपट तू कहीं
उन सितारों की महफ़िल सजाती रही
लटपटाता रहा आह भरता   रहा
फिर भी बढ़ता रहा रंग भरता रहा
तूने लव बनाये थे कुछ तरु वहीं
चीड-देवदार खामोश हारे सभी
तेरी जिद आगे हारे न लौटा सके
ना तुझे-ना वो खुशियाँ- न रंगीनियाँ
पलकों के शामियाने बस सजे रह गए
ना वो 'दूल्हा' सजा , ना वो 'दुल्हन' सजी
मंच अरमा , मचल के कतल हो गए
वर्फ से लदे गिरि  पर्वत वहीं थे कफ़न से
दिखे ! चांदी की घाटियाँ  कब्र सी बन गयीं
सुरमई सारे पल वे सुहाने सफ़र
सारे रहते हुए -बिन तुम्हारे सखी !
सारे धूमिल हुए -धूल में मिल गए
सिसकियाँ मुंह से निकली तो तरु झुक गए
फूल कुछ कुछ झरे 'हार' से बन गए
कौंधी बिजली तू आयी -समा नैन में
प्रेम -पाती ह्रदय में जो रख तू गयी
मै पढता रहा मै सम्हलता रहा डग भरता रहा
अश्रु छलके तेरी प्रीती में जो सनम
मै पीता रहा पी के जीता रहा
झील सी तेरी अंखियों में तरता रहा
तेरी यादों का पतवार ले हे प्रिये
तेरे नजदीक पल-पल मै आता रहा
दीप पल-पल जला-ये बुझाता रहा
आँधियों से लड़ा - मै जलाता रहा !
कल चला था पुनः राह मै उसी
दिल में यादों का तूफाँ समेटे हुए ...
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'
४.४५-५.४० मध्याह्न
१९.५.१२ कुल्लू यच पी



सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Saturday, 8 September 2012

यदि ऐसा होता


यदि ऐसा होता

उपालंभ तुम देते रहे
हर बार उन्हें वह सहती रही
जब दुःख हद से पार हुआ
उसका जीना दुश्वार हुआ
कुछ अधिक सहा और सह न सकी
उसका मन बहुत अशांत हुआ
पानी जब सिर से गुजर गया
उसने सब पीछे छोड़ दिया
निराशा मन में घर करने लगी
जीने का मोह भंग हुआ
अपनी खुशियाँ अपने सुख दुःख
मुट्ठी में बंद किये सब कुछ
अरमानों की बलिवेदी पर
खुद की बली चढ़ा बैठी
जीते जी खुद को मिटा बैठी
दो शब्द प्यार के बोले होते
दिल के रहस्य खोले होते
जीवन में इतनी कटुता ना होती
वह हद को पार नहीं करती
सदा तुम्हारी ही रहती |
आशा
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

Sunday, 2 September 2012

अनुभूति

तुम्हारे मेरे बीच कुछ तो ऐसा है
जो हम एक डोर से बँधे हैं
क्या है वह कभी सोचा है ?
अहसास स्नेह का ममता का
या अटूट विश्वास
जिससे हम बँधे हैं |
साँसों की गिनती यदि करना चाहें
जीवन हर पल क्षय होता है
पर फिर भी अटूट विश्वास
लाता करीब हम दोनों को
हर पल यह भाव उभरता है
अहसास स्नेह का पलता है
पर बढ़ता स्नेह
अटूट विश्वास पर ही तो पलता है |
कभी सफलता हाथ आई
कभी निराशा रंग लाई
जीवन के उतार चढ़ावों को
हर रोज सहन किया हमने
इस पर भी यह अहसास उभरता है
जीवन जीने का अंदाज यही होता है |
तुम्हारे मेरे बीच कोई तो ऐसा है
जो हमें बहुत गहराई से
अपने में सहेजता है
और इस बंधन को
कुछ अधिक प्रगाढ़ बनाता है |
कई राज खुले अनजाने में
मन चाही बातों तक आने में
फिर भी न कोई अपघात हुआ
और अधिक अपनेपन का
अहसास पास खींच लाया |
बीते दिन पीछे छूट गए
नये आयाम चुने हमने
अलग विचार भिन्न आदतें
व रहने का अंदाज जुदा
फिर भी हम एक डोर से बँधे हैं
सफल जीवन की इक मिसाल बने हैं
और अधिक विश्वास से भरे हैं
यदि होता आकलन जीवन का
हम परवान चढ़े हैं
तुम में कुछ तो ऐसा है
जो हम एक डोर से बँधे है |
आशा
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः