उड़ चला पंछी
उस अनंत आकाश में
छोड़ा सब कुछ यहीं
यूँ ही इसी लोक में
बंद मुट्ठी ले कर आया था
आते वक्त भी रोया था
इस दुनिया के
प्रपंच में फँस कर
जाने कितना सह कर
इसी लोक में रहना था
आज मुट्ठी खुली हुई थी
जो पाया यहीं छोड़ा
पुरवासी परिजन छूटे
वे रोए याद किया
अच्छे कर्मों का बखान किया
पर बंद आँखें न
खुलीं
वह चिर निद्रा में सो गया
वारिध ने भी दी जलांजलि
वह बंधन मुक्त हो गया
पञ्च तत्व से बना पिंजरा
अग्नि में विलीन हो गया |
आशा
6 comments:
आदरणीय शास्त्री जी जय श्री राधे ...आभार आप का इस रचना को चर्चा मंच पर ले जाने हेतु ...आप के साथ साथ आशा जी को भी बधाई ..
भ्रमर ५
बहुत गहन और सुन्दर अभिव्यक्ति...
यही सत्य है, गहन अभिव्यक्ति है !
आभार आपका !
प्रिय सतीश जी सच कहा आपने ..प्रोत्साहन हेतु आभार
कृपया आते रहें
भ्रमर५
आदरणीय कैलाश शर्मा जी रचना में गहन अभियक्ति आप ने देखा और सराहा सुन ख़ुशी हुयी आशा जी को बधाई
आभार
भ्रमर५
जीवन का अंतिम सत्य । हर पंछी को उड जाना है ।
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