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Thursday, 11 October 2012

उड़ चला पंछी


उड़ चला पंछी


उड़ चला पंछी कटी पतंग सा
अपनी यादें छोड
समस्त बंधनों से हो  मुक्त 
उस अनंत आकाश में
छोड़ा सब कुछ यहीं
यूँ ही इसी लोक में
बंद मुट्ठी ले कर आया था
आते वक्त भी रोया था
इस दुनिया के
प्रपंच में फँस कर
जाने कितना सह कर
इसी लोक में रहना था
आज मुट्ठी खुली हुई थी
जो पाया यहीं छोड़ा
पुरवासी परिजन छूटे
वे रोए याद किया
अच्छे कर्मों का बखान किया
पर बंद आँखें  न खुलीं
वह चिर निद्रा में सो गया
वारिध ने भी दी जलांजलि
वह बंधन मुक्त  हो गया
पञ्च तत्व से बना पिंजरा
अग्नि में विलीन हो गया |
आशा
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः

6 comments:

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

आदरणीय शास्त्री जी जय श्री राधे ...आभार आप का इस रचना को चर्चा मंच पर ले जाने हेतु ...आप के साथ साथ आशा जी को भी बधाई ..
भ्रमर ५

Kailash Sharma said...

बहुत गहन और सुन्दर अभिव्यक्ति...

Satish Saxena said...

यही सत्य है, गहन अभिव्यक्ति है !
आभार आपका !

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

प्रिय सतीश जी सच कहा आपने ..प्रोत्साहन हेतु आभार
कृपया आते रहें
भ्रमर५

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

आदरणीय कैलाश शर्मा जी रचना में गहन अभियक्ति आप ने देखा और सराहा सुन ख़ुशी हुयी आशा जी को बधाई
आभार
भ्रमर५

Asha Joglekar said...

जीवन का अंतिम सत्य । हर पंछी को उड जाना है ।